दिल और दिमाग की उलझन में..

पृष्ठभूमि : प्रस्तुत कविता के माध्यम से मैं एक गहरे आंतरिक संघर्ष या मन और दिल के बीच की कठिनाई को व्यक्त करना चाह रहा हूँ। कविता एक परिस्थिति का वर्णन करती है, जहाँ एक ओर दिल की भावनाएं और दूसरी ओर दिमागी तर्कशील विचार टकराते हैं, जो इंसान के अंदर अपनी आंतरिक महकमे की विपरीत भूमिकाएं उत्पन्न करती हैं। मानव अनुभव की पेचीदगी को … Continue reading दिल और दिमाग की उलझन में..

मैं भटकता बहुत हूँ..

मुझसे पीछा छुड़ाने की साजिश रची,हर दफा बात का बस बतंगड़ किया।मुझसे लड़ने झगड़ने का ढूंढा बहाना,जख़्मी मुझको ही अंदर ही अंदर किया।जाते जाते मढ़ा मेरे माथे इल्ज़ाम,कि मैं उनसे झगड़ता बहुत हूँ.. खुद के अपमान का घूंट पीकर भी मैं,टूटते रिश्ते को बस बचाता गया।अच्छा था जब तलक चुप मैं सुनता रहा,जैसे बोला तो मैं बदतमीज हो गया।करके मजबूर, उकसा के मुझको सदा,कहते है … Continue reading मैं भटकता बहुत हूँ..

तूफ़ान..

अगर अब आना ही हो ज़िंदगी में तो तूफ़ान की तरह आना यू आते जाते झोकों से वाकिफ़ बहुत है हम.. हम वो पत्थर बन गए है ठोकरें खाकरके अब मुश्किल सा लगता है फिर से बह जाना..उन हवाओं के झोकों के साथ,जिनका आना न आनाअब कोई मायने नही रखता.. Continue reading तूफ़ान..