मैं भटकता बहुत हूँ..

मुझसे पीछा छुड़ाने की साजिश रची,
हर दफा बात का बस बतंगड़ किया।
मुझसे लड़ने झगड़ने का ढूंढा बहाना,
जख़्मी मुझको ही अंदर ही अंदर किया।
जाते जाते मढ़ा मेरे माथे इल्ज़ाम,
कि मैं उनसे झगड़ता बहुत हूँ..

खुद के अपमान का घूंट पीकर भी मैं,
टूटते रिश्ते को बस बचाता गया।
अच्छा था जब तलक चुप मैं सुनता रहा,
जैसे बोला तो मैं बदतमीज हो गया।
करके मजबूर, उकसा के मुझको सदा,
कहते है मैं अकड़ता बहुत हूँ..

मुझको उनपर तो पूरा भरोसा ही था,
पर मैं डरता था कि खो न जाए कहीं।
खाल बकरी की ओढ़े दरिंदों से बचना,
करके गुमराह नोच न खा जाए कहीं।
मेरी चिंता को ‘शक़’ मानकर मुझको वो,
कहते है मैं हटकता बहुत हूँ..

मेरे रंग, रूप और मेरे पहनावे को,
औरों से तोलकर मुझको नीचा दिखाया।
करके संदेह काबिलियत पर मेरी,
तुमने मेरी ही नजरों में मुझको गिराया।
नूर था जिनकी नजरों में पहले कभी,
आजकल मैं खटकता बहुत हूँ..

जाते जाते मेरी एक दरखास्त है,
झूठी उम्मीदों से अच्छा बर्खास्त है।
एकतरफा ही था, एकतरफा रहेगा,
प्यार मेरा, मेरी आखरी सांस तक।
सौ दफा खाके ठोकर, मेरे लक्ष्य से,
सच तो है मैं भटकता बहुत हूँ..

– © कार्तिक मिश्रा

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