आखरी ख़त

मुलाक़ातों में कुछ बातों में ही दीदार हो गया
अनजाने में मुझको कब न जाने प्यार हो गया
जो तूने कह दिया कि हो नही सकता है ये मुमकिन
मैं खुद की ही नज़र में खुदका गुनहगार हो गया


पता होता अगर मुझको तो इतना मैं नही गिरता
तुझे पाने की चाहत में ना ही हद पार मैं करता
मुझे फिरसे संभलने का अगर मौक़ा दिया होता
तुझे भी भूल जाता मैं दोबारा ज़िद नही करता


नज़ारे और भी होंगे किनारे और भी होंगे
ना होंगे हम तो क्या महफ़िल में तेरे और भी होंगे
तू मुझसे रोज मेरे ख्वाब में मिलने चली आना
जहां बस दोनों होंगे न कोई और फासलें होंगे


मैं तेरी यादों को सिरहाने में संभाल रखूंगा
तेरी हर बातों की मैं नज़्म बुनकर याद रखूंगा
मैं तेरी दोस्ती क्या दुश्मनी के भी नही क़ाबिल
तेरा एहसान आखिरी सांस तक मैं याद रखूंगा


मेरा रुतबा ही कहा है जो किसीको याद आऊ
मेरी हैसियत नही है जो किसीसे दिल लगाऊ
तू भी मत आंसू बहाना ना दुआ में याद करना
करके मेरा ज़िक्र खुद का वक़्त मत बर्बाद करना
एक बुरा सपना समझकर मुझको तू अब भूल जाना
माफी के लायक नही, पर हो सके तो माफ करना

©कार्तिक मिश्रा

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